Monday, October 28, 2013

तू प्यार का सागर था.....

प्रबोध चंद्र डे यानि हमारे चहेते गायक मन्ना डे नहीं रहे, पिछले सप्ताह २४ अक्तूबर २०१३ को उनका बंगलौर के एक अस्पताल  में हृदय गति रुकने से  देहावसान हो गया ।वे पिछले कुछ अरसे से बीमार चल रहे थे,विशेष कर पिछले वर्ष मई में अपनी  पत्नी सुलोचना कुमारन डे,जिनके साथ मन्ना डे जी ने लगभग साठ वर्ष तक सफल व सुखी दांपत्य जीवन बिताया,  की कैंसर से हुई मृत्यु के पश्चात ही से  वे बड़े उदास व ज्यादा बीमार रहने लगे थे, विगत  जून माह से ही उनकी स्थिति चिंताजनक बनी हुई थी ।

मन्ना डे बंगाली थे परंतु उनकी पत्नी केरल से संबंध रखती  थीं, व साठ वर्ष से अधिक का इन दोनों का दांपत्य जीवन प्रेम, जीवंतता व साहचर्य की  सुंदरता का एक अनोखा व अनुकरणीय प्रतीक था ।सुलोचना जी मन्ना डे की सिर्फ जीवन साथी नहीं अपितु उनकी सबसे प्रिय मित्र व उनके सुंदर गाने की प्रेरणा भी थीं।

वैसे तो मन्ना डे जी की हिंदी   फिल्मों में पार्श्वगायन की लंबी यात्रा उनकी लगभग तेईस वर्ष की युवावस्था में ही,  सन् १९४२ में  'तमन्ना' फिल्म में   अपने चाचा व अपनी  संगीत शिक्षा के गुरु श्री प्रकाश चंद्र डे के संगीत निर्देशन में   शुरू हो गई  थी, परंतु उनका वास्तविक अभ्युदय व एक  उत्कृष्ट गायक का स्थान व प्रसिद्धि सन् १९५० में 'मशाल ' फिल्म में उनके गाये बहुत हिट हुए  गाने 'ऊपर गगन विशाल ' से मिली, जिसके  संगीतकार सचिन देव बर्मन व गीतकार प्रदीप थे। उसके पश्चात तो उनका फिल्मों में लाजवाब गाने व संगीत और उनकी जबरदस्त ख्याति व सफलता और सन् १९५३ में उनकी  पत्नी बनीं सुलोचना जी से  उनका ताउम्र अटूट नाता  बना रहा  ।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भारत की आजादी के बाद  पचास के दशक  से लेकर १९७५-७६ ,के लगभग ढाई  दशकों का काल जिसे हिंदी फिल्म गीत व संगीत का स्वर्णिम काल भी माना जाता है , उसमें मन्ना डे जी का योगदान सर्वोपरि रहा ।एक से बढ़कर एक सुंदर व मनमोहक गाने जो गीत संगीत की दुनिया में सदैव अमर रहेंगे मन्ना डे जी द्वारा इस अवधि में अपने  बेहतरीन  व मस्त  आवाज़  में गाये गये ।

स्वयं के संगीतबद्ध कई अति  प्रसिद्ध हुये   गानों के अतिरिक्त,उन्होंने हिंदी, बंगाली, मलयालम व कन्नड़ फिल्मों के  लगभग सभी नामी गिरामी संगीत निर्देशकों के लिए अपनी लाजवाब व दिलकश आवाज़ में उन्होंने हजारों  हजारों बेहतरीन व प्रसिद्ध गीत गाये ।उनके कार्य के स्तर व प्रसिद्धि का अंदाजा  इसी बात से लगाया  जा सकता है कि उन्होंने अपने सक्रिय  गायन काल,१९४२ से २००६ की अवधि में  , तकरीबन  चार हजार से अधिक गाने गाये और सौ से अधिक फिल्म निर्देशकों के साथ काम किया ।शुरुआत में  ,पचास के दशक में   सचिन दा, अनिल विश्वास, सी. रामचंद्रन, खेम चंद्र प्रकाश से लेकर  साठ के दशक में सलिल चौधरी, नौशाद, रोशन और ओ पी नैय्यर तथा सत्तर के दशक में राहुल देव बर्मन,लक्ष्मी कांत प्यारे लाल, कल्याण जी आनंद जी जैसे सभी प्रसिद्ध संगीतकारों के वे सदैव  पहली पसंद बने रहे व  उनके दिये संगीत पर मन्ना डे जी ने  बेहद खूबसूरत गाने गाये , जो एक से बढ़कर एक और सदाबहार हैं - फिल्म मशाल का 'ऊपर गगन विशाल ' , राजकपूर जी की फिल्मों के लाजवाब गाने - मुड़ मुड़ के ना देख (श्री ४२०),लागा चुनरी में दाग़ (दिल ही तो है ),ए भाई जरा देख के चलो (मेरा नाम जोकर ) जैसे कितने ही गाने जिनको बारबार  सुनते भी  कभी जी नहीं भरता ।

महान संगीतकारों के अतिरिक्त कई महान अभिनेताओं , जैसे राजकपूर,बलराज साहनी  महमूद,अनूपकुमार ,राजेश खन्ना इत्यादि  के लिये  भी मन्ना डे अपने ऊपर पिक्चराइज होने वाले गाने के गायक के रूप में  पहली पसंद होते थे ।

अपने बेहतरीन सोलो सांग्स के अलावा मन्ना डे  अपने समय के बेहतरीन सहगायकों के साथ  भी अनेकों खूबसूरत डुएट गाने भी गाये । फिल्म शोले का मुहम्मद रफी के साथ गाना 'ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे' एक सदाबहार और श्रोताओं की  जुबान पर हमेशा रहने वाला गाना है ,इसी प्रकार फिल्म तीसरी कसम का 'चलत मुसाफ़िर मोह लिया', अथवा फिल्म पड़ोसन का किशोर कुमार के साथ गाया 'इक चतुर नार करके सिंगार' श्रोताओं  के दिल व दिमाग दोनों को गुदगुदा जाते हैं ।

सहगायकों के अलावा अपने समय की सभी प्रसिद्ध गायिकायों जैसे लता जी, शमशाद बेगम, गीता दत्त, सुरैया,  आशा भोसले ,सुमन कल्याणपुरी के साथ भी मन्ना डे जी ने  बड़े ही लाजवाब गाने गाये हैं  जिन्हें सुनते बरबस आपका भी साथ साथ गुनगुनाने का दिल करता है ।सुमन कल्याणपुरी उनकी पसंदीदा डुएट जोड़ी दार थीं व उनके साथ मन्ना डे जी ने  चालीस से भी  अधिक खूबसूरत डुएट गाने गाये, जिन्हें जितना भी  सुनें,कभी जी नहीं भरता, और सुनने को जी करता है ।

मन्ना डे जी को अपने जीवन काल में अनेकों महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिसमें तीन बार बेस्ट प्लेबैक मेल सिंगर के लिए  फिल्म फेयर अवार्ड, भारत सरकार द्वारा १९७१ में पद्मश्री, २००५ में पद्मभूषण व २००७ में दादा साहब फाल्के पुरस्कार सम्मिलित हैं ।

मन्ना डे न सिर्फ एक लाजवाब गायक, बल्कि वे एक लाजवाब इंसान भी थे, वे अपने संगीतकारों व सहगायकों के प्रति न सिर्फ व्यावसायिक सम्मान बल्कि उनके प्रति अपना व्यक्तिगत आदर व सम्मान  रखते थे ।मुझे स्मरण आता है  रेडियो विविध भारती पर उनका यदाकदा प्रस्तुत सेना के जवानों के लिए प्रसिद्ध जयमाला कार्यक्रम जिसमें मन्ना डे जी ने अपने विभिन्न संगीतकारों व सहगायकों के बारे में व उनके साथ अपने संबंध व अनुभव की विस्तार से चर्चा की है, उनकी बातों से  यही पता चलता है कि मन्ना डे जी अपने संगीतकारों व साथी गायकों के प्रति बड़ा आदर का भाव व उनसे सदैव कुछ न कुछ नया सीखने को तत्पर रहते थे ।

मन्ना डे एक आदर्श गायक, अच्छे इंसान होने के साथ साथ  एक आदर्श पति और पिता भी थे ।जैसा पहले लिखा है कि वे अपनी पत्नी सुलोचना जी के प्रति बेइंतहा प्रेम व सम्मान रखे ।मन्ना डे  जी की दो बेटियाँ हैं, एक अमेरिका में अपने परिवार के साथ रहती हैं, व दूसरी बेटी बंगलौर में रहती है ।

मन्ना डे जी की पैदाइश कोलकाता की थी और अपनी कर्मभूमि होने के नाते अपनी जिंदगी का अधिकांश  व सबसे खूबसूरत समय अपनी पत्नी सुलोचना जी के साथ  मुंबई नगरी में बिताया परंतु पिछले कई वर्षों से अपनी पत्नी की बीमारी व बिगड़ते स्वास्थ्य के चलते अपनी बेटी के साथ बंगलौर में ही स्थाई तौर पर निवास करते थे, उनका बंगलौर में रहना निश्चय ही बंगलौर शहर व इस शहर के निवासियों हेतु एक गौरव का विषय रहा ।

यह जीवन व मनुष्य शरीर तो नश्वर है, परंतु हमारी इच्छाओं का भी कोई अंत नहीं ।अपनी  विशेष  इच्छा को यदि हम समय रहते पूरा नहीं करते तो निश्चय ही हमेशा के लिए चूक जाते हैं और फिर आजीवन अधूरी इच्छा लिए जीना अथवा इस जीवन से विदा होना पड़ता है ।मन्ना डे जी की बड़ी व अपने जीवन की अंतिम  इच्छा थी अपनी पत्नी सुलोचना जी के लिए अपना गाया एक अलबम जारी  करने का, परंतु अपने  खराब स्वास्थ्य के चलते वह अपनी अंतिम इच्छा को अधूरी लिये ही इस जीवन व संसार से विदा हो गये । मेरी भी बहुत समय से मन में बड़ी इच्छा थी बंगलौर शहर में रहते  मन्ना डे जी के दर्शन करने की, परंतु मैं बस सोचता ही रहा, कभी इस हेतु सार्थक प्रयास नहीं किया, इस प्रकार मेरी भी  यह इच्छा हमेशा के लिए अधूरी रह गयी ।

भारत माँ व माँ सरस्वती के इस महान पुत्र को शतशत नमन व हार्दिक श्रद्धांजलि ।

Sunday, October 27, 2013

जब कभी अपने बच्चों से ही सही मार्ग दर्शन मिलता है ....

प्रायः माता पिता अपने बच्चों के मार्गदर्शक होते हैं, व बच्चे जब अनिर्णय व उहापोह अथवा किसी अनुचित कार्य  की स्थिति में होते हैं ,तो माता पिता अपने जीवन अनुभव की समझ द्वारा अपने  बच्चों को उचित   सलाह मशविरा व मार्ग दर्शन  दे उन्हें सही  निर्णय लेने व किसी अप्रिय स्थिति से बाहर निकलने में सहायता करते हैं ।परंतु जब बच्चे स्वयं ही अपने विवेक व समझदारी की सलाह  से अपने  मातापिता को ही किसी अनिर्णय, उहापोह अथवा अप्रिय स्थिति से बाहर निकलने में सहायता करें तो मातापिता को अपने बच्चों के प्रति निश्चय ही  बहुत संतोष व गर्व की अनुभूति होती है और एक आंतरिक संतुष्टि व प्रसन्नता मिलती है  कि अब हमारे बच्चे सचमुच, बड़े, समझदार व दुनियादारी के सहज निर्वाह के योग्य हो गये हैं ।

विगत कुछ अवधि से मैं अनुभव कर रहा हूँ कि जब भी किसी  वैचारिक असंतुलन में होता हूँ  अथवा अपने जल्दबाजी अथवा थोड़े आवेश में आकर कोई अप्रिय प्रतिक्रिया अथवा  निर्णय अभिव्यक्त करता हूँ, मेरे बच्चे बड़े शांत व समझदारी से कोई उचित राय देते है, जिससे वह अप्रिय स्थिति टल जाती है, और निश्चय ही मुझे इससे बहुत सुखद व शांति दायक अनुभूति होती है ।आज भी ऐसा ही कुछ छोटा सा वाकया हुआ, जिसमें मैं अपने बेटे की सलाह समय पर मानते एक अप्रिय स्थिति से सहजता से बच गया जिसका मुझे हार्दिक संतोष हो रहा है ।

आज दोपहर बाद फेस बुक न्यूजफीड   में मेरी दृष्टि मेरे फ्रेंडलिस्ट  के एक सदस्य की पोस्ट पर गयीं जिसमें उन महोदय ने मेरे स्टेटस  पर पोस्टेड मेरी एक  कविता को बिना किसी संदर्भ व मेरे संज्ञान के उसे  अपने नाम से पोस्ट कर रखी थी।यह कविता   कल शाम  ही मैंने लिखी  व अपने ब्लॉग पर पोस्ट करने के साथ अपने  फेसबुक  स्टेटस पर भी  पोस्ट की थी, उसे मेरे इस फेसबुकिया मित्र ने तरीके से मेरी पोस्ट को अपनी पोस्ट पर शेयर करने बजाय, उसे अपने फेसबुक  स्टेटस पर अपने नाम के नीचे, मेरे बिना किसी संदर्भ या संज्ञान के, अपनी कविता बनाकर पोस्ट किया है ,आश्चर्य यह कि इन महोदय ने इस पोस्ट पर अपने मित्रों के कमेंट्स भी बड़ी सहजता से स्वीकार किये हैं मानों यह उनकी अपनी स्वयं की रचना हो।

मैं तो यह देख बहुत  हैरान और दुखी हुआ कि कोई भला मेरी रचित  कविता को इस प्रकार कॉपी  कर अपनी पोस्ट पर कैसे डाल सकता है ।मैंने बहुत गुस्से व आवेश में उनकी पोस्ट के कमेंट्स में लिखा कि आखिर वह मेरी रचित  कविता  को अपनी पोस्ट पर बिना मेरे संदर्भ व संज्ञान के अपनी कविता बनाते  कैसे प्रस्तुत कर सकते हैं? 

अपनी यह रोशभरी  प्रतिक्रिया उनके पोस्ट पर लिखने बाद मैंने इस बात की चर्चा अपने बेटे से की।सारी बात जानकर मेरा बेटा गंभीर होते  मुझे इस बात पर  इतनी तीखी  प्रतिक्रिया व नाराजगी दिखाने  से बचने व बेहतर इस मेरी लिखी प्रतिक्रिया को उन मित्र के पोस्ट पर दिये  कमेंट्स से  तुरंत मिटाने की सलाह दी ।

दरअसल ये फेसबुक के मेरे मित्र हमारे नजदीकी रिश्तेदार भी   हैं, वे एक जिम्मेदार सरकारी  पद पर कार्य करते हैं, व मेरा बेटा भी  उन्हें भलीभाँति जानता है और उनसे मिल चुका है  ।मेरे पुत्र की मुझे सलाह थी कि हालांकि मेरा गुस्सा व प्रतिक्रिया जायज है परंतु मेरी इस प्रकार की पब्लिकली लिखित कड़ी   प्रतिक्रिया हमारे इन रिश्तेदार हेतु अपने परिवार व मित्रों के बीच शर्मिंदगी का कारण बन सकती है  व इस कारण  उनसे हमारे सौहार्दपूर्ण  रिश्ते व संबंध  हमेशा के लिए प्रभावित हो सकते है , और इस छोटी सी बात पर ही हम अपना  एक नजदीकी  रिश्तेदार व आत्मीय सदा के लिए खो सकते हैं ।

अलबत्ता मेरे पुत्र ने मुझे आगे से अपने मौलिक  लेखों व रचनाओं  को फेसबुक पर पोस्ट करते समय विभिन्न ऐतिहात बरतने की सलाह दी, जैसे अपनी कविता या लेख को सीधे टेक्स्ट फॉर्मैट में पोस्ट करने के बजाय उसे अपनी  पिक्चर अथवा लोगो के साथ पिक्चर फॉर्मैट में पोस्ट करना जिससे उसके किसी के द्वारा  सीधे सीधे कॉपी पेस्ट चोरी की संभावना कम हो जाती है, दूसरे अपनी रचना व लेख के साथ रचनाकार व लेखक के रूप में  अपना नाम जरूर  लिखें व पाठकों हेतु एक सामान्य चेतावनी भी लिखें कि इस पोस्ट में प्रकाशित  लेख या रचना मेरी  एक मौलिक कृति है व  बिना मेरी अनुमति व मेरे  संदर्भ व संज्ञान  के   इसे कॉपी करना अथवा इसका अपने लेखन में किसी प्रकार उपयोग में लाना सर्वथा वर्जित है ।

मुझे अपने पुत्र की यह समझदारी भरी व विवेक पूर्ण सलाह बहुत जायज व अनुकूल  लगी।सच कहें तो मुझे अपने फेसबुक मित्र की पोस्ट पर जल्दबाजी में  अपनी रोशभरी  प्रतिक्रिया लिखने पर स्वयं भी अब पछतावा हो रहा था क्योंकि हमारे इस फेसबुक मित्र व अपने नजदीकी  रिश्तेदार के प्रति मन में बड़ी आत्मीयता व स्नेह है  और  इतनी छोटी सी बात पर मैं उनसे  अपनी  आत्मीयता व संबंध नहीं  खोना चाहता था ।

वैसे भी मैं अपने अति  स्पष्टवादी व किसी के मुंह पर ही कड़ी बात कह देने के  स्वभाव   व दूसरे की गलतियों के प्रति जीरो टॉलरेंस की अपनी  प्रवृत्ति के कारण,यह अलग बात है कि मैं तो अपनी  कही बातों को भूल चुका होता हूँ व मुझे बाद में इन पुरानी बातों व घटना का ध्यान भी नहीं रहता परंतु अगला व्यक्ति मेरी  उन कही बातों का मन में गांठ बाँध लेता है, यदा कदा  अपने कुछ  नजदीकी जनों को भी छोटीमोटी बातों के लिए उनके  मन को ठेस पहुँचा देता हूँ जिससे उनसे  हमारे पुराने आत्मीय संबंध प्रभावित हो जाते हैं ,   और इस तथ्य को  मेरा बेटा भी अच्छी प्रकार  समझता है ।

अतः अपने बेटे की इस  विवेक पूर्ण सलाह व अपने   पुराने अनुभव से सबक लेते  मैंने इस मुद्दे पर अतिप्रतिक्रिया से बचने व शांति व संयम से काम लेने का निर्णय लेते अपने मित्र की पोस्ट पर उनकी हरकत  के विरुद्ध लिखी अपनी गुस्से व रोशभरी तीखी प्रतिक्रिया को तुरंत  डिलीट करने का निर्णय लिया  । भविष्य में  ऐसी परिस्थिति से बचा जा सके, इस हेतु  मैं अपने बेटे की सलाह पर अमल लेते आगे से  अपनी रचनाओं व लेखों  को फेसबुक पर पोस्ट करते समय आवश्यक सावधानी रखने का निर्णय लिया , ताकि उनके  सामान्य कॉपी पेस्ट चोरी से बचा जा सके ।कहते हैं न कि सुरक्षा से सावधानी भली ।

यकीनन अपनी प्रतिक्रिया को डिलीट कर देने व इस प्रकरण  को यही समाप्त कर देने का मुझे अपार संतोष है, अन्यथा मैं व मेरा परिवार शायद  अपने एक आत्मीय जन से आगे के लिए  सौहार्द पूर्ण संबंध हमेशा के लिए खो सकता था ।

अपने पुत्र के इस विवेक पूर्ण हस्तक्षेप के लिए मैं उसका हृदय से आभारी हूँ ।उसकी दुनियादारी की सही समझ व अपने आत्मीय जनों व रिश्तों के प्रति आदर व सम्मान रखने की भावना  पर मुझे एक पिता के रूप में अपार गर्व व हार्दिक प्रसन्नता हो रही है ।

सिरहाने बैठकर पैंताने की बात करने वालों के मिथ्याचार को समझें !


बड़ा ही अजीब लगता हैं जब सिरहाने बैठे लोग  पैंताने बैठे लोगों की बात करते हैं ।महात्मा गाँधी यदि  पैंताने बैठे लोगों की बात करते थे, तो वह यह बात पैंताने बैठकर ही  करते थे न कि सिरहाने बैठकर , उनके कथनी करनी, सिद्धांत व आचरण  में एकनिष्ठता थी।

कुछ लोग अपने नाम के साथ  गाँधी सरनेम लगाकर मात्र लफ्फेबाजी करके  महात्मा  गाँधी दिखने व बनने  का ढोंग करते हैं व गाँधी के नाम से देश को,विशेषकर गरीब तबके को, गुमराह करने की कोशिश करते हैं , उनके इस पाखंड व मिथ्याचार को देश व देश की जनता को भलीभाँति समझना चाहिए ।

यह ध्यान देने की बात है कि पैंताने बैठे व्यक्ति की कोई जाति या मजहब नहीं होता, उसकी तो बस एक ही जाति व एक ही धर्म है और वह है गरीबी का, लाचारी का और निरंतर करते जीवन  संघर्ष का ।महात्मा गाँधी इस सत्य व इसकी पीड़ा  को अंतर्मन व हृदय से समझते थे  इसी लिए वे  स्वयं  एक अति गरीब व साधारण व्यक्ति का जीवन व रहनसहन स्वेच्छा से अपनाकर स्वयं भी वैसा ही सरल व अति साधारण  जीवन  जीते थे । परंतु बड़ी  हैरानी व खेदजनक बात यह है कि आज सिरहाने बैठे लोग ही बड़ी चतुराई, कुटिलता व अपने भावनोत्तेजक शब्द जाल से पैंताने बैठे लोगों को बड़ी सहजता से जाति व मजहब में बाँटकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने में सफल हो रहे  हैं, व आम व लाचार आदमी को अपने साथ हो रहे  इस छल व धोखा का अहसास भी नहीं हो पा रहा ।

मैं यह नहीं कहता कि सिरहाने बैठे लोगों को राजनीति करने  व राजनीति में भाग लेने का अधिकार व योग्यता नहीं, यह तो एक लोकतांत्रिक देश में  हर व्यक्ति, देश वासी का मौलिक व संवैधानिक अधिकार है, परंतु यहाँ मुद्दा है व्यक्ति के  कथनी करनी के विभेद का, उनके पाखंड का ।आप एकतरफ गोल्फ कोर्स में जाते हैं  , बस ब्रांडेड कपड़े जूते पहनते हैं, अपनी दिनचर्या की छोटी से बड़ी जरूरत व सामान की खरीददारी विदेश में करते हैं, अपनी अधिकृत या अनधिकृत  कमाई विदेशी स्विस बैंक की तिजोरियों में जमा करते  हैं, बड़ी बड़ी इंपोर्टेड विदेशी कार में घूमते हैं, इंपोर्टेड बाइक से अपनी गैंग के साथ हाईवे पर देर रात  हाईस्पीड रेस व स्टंटबाजी करते हैं,यह सब करना आपको अच्छा लगता है व आपका शौक है तो इन्हें  आप जरूर व बेशक करिये , यह आपकी मर्जी व आपका मुकद्दर है, इसमें कोई बुराई भी नहीं, जब तक कि आप देश के  कानून के अंतर्गत रहकर आचरण करते हैं, मगर फिर आपके मुँह से गरीब, गरीबी ,गरीबों की कहानी बड़ा पाखंडपूर्ण व मिथ्याचार लगता है ।आप जो जीवन जी रहे हैं, उसकी बात करिये न, अपने जीवन शैली व आपसे जाती तौर पर जुड़े ग्रुप व क्लास की बात करिये न! आप रईस  हैं, शौक मिजाज हैं,  आप रईसी ढाटबाट व विदेशी स्तर का जीवन जीते हैं तो आप इस जीवन शैली से जुड़ी बात करिये न!  यह गरीब व गरीबी की बात आपके मेनुबुक में कहाँ से शामिल हो गयी? अपनी जीवन शैली से विपरीत जीवन व उसके आदर्श बघारने का यह पाखंड क्यों? क्या यह हक आपको इसलिए मिल जाता है कि आपने अपने  नाम के आगे  गाँधी सरनेम,जो कि आपका असली नहीं बल्कि अपने स्वार्थ व सुविधा हेतु दूसरे से अपनाया हुआ है,  जोड़ रखा है? क्या यह आपका कोरा ढोंग व भारत की गरीब जनता के साथ धोखेबाजी नहीं है?

यहाँ कुछ बातें बहुत महत्वपूर्ण व गंभीर हैं जिसे हर भारतीय  को स्पष्ट व पूरी तरह समझ लेना बहुत आवश्यक है ,क्योंकि यहाँ राजनीति से जुड़े ऐसे प्रधान  व्यक्ति या व्यक्तियों  के चरित्र, आचरण, व कर्म की निष्ठा का प्रश्न है, जो कल देश की जनता द्वारा चुने जाकर, जनता के प्रधान प्रतिनिधि बनकर, देश व देश की जनता के भाग्यविधाता बनने वाले हैं ।इसलिए  क्या हर भारतीय को यह जानना व समझना जरूरी नहीं कि वे अपना देश व इसकी बागडोर किस प्रकार के चरित्र व आचरण वाले  लोगों के हाथ सौंपने जा रहे हैं, वे सत्य निष्ठ लोग हैं अथवा मिथ्याचारी, इन बातों को जान लेना  देश के हर नागरिक को न सिर्फ  आवश्यक बल्कि देश के प्रति महत्वपूर्ण कर्तव्य भी है ?

प्रथम बात तो यह कि महात्मा गांधी का गांधी नाम असली था, न कि किसी पहले से ही अति प्रसिद्ध अथवा महान व्यक्ति के नाम से अपनी सुविधा व स्वार्थ हेतु मात्र अपनाया गया कोई नकली नाम ।यदि देश गांधी नाम का सम्मान करता है व पूजता है तो यह महात्मा गांधी के स्वयं की महानता व देश के प्रति महान कर्तव्य व समर्पण के कारण है न कि किसी उधार में अपनाये गये किसी और के प्रसिद्ध नाम की आड़ में ।दूसरी बात यह कि महात्मा गांधी   यदि गरीब और गरीबी की बात करते थे तो इसमें पाखंड नहीं था, बल्कि  उनका स्वयं व अपने परिवार  का  रहनसहन, वेषभूषा, खानपान, आचरण सभी अति साधारण, एक आम व गरीब आदमी की ही तरह था, उनके कथनी व जीवन शैली में एकनिष्ठता थी।तीसरी बात यह कि महात्मा गांधी सिर्फ गरीब की ही नहीं हर व्यक्ति की समूचे देश, सभी जाति,सभी मजहब, सभी समुदाय की बात करते थे, वे सबको ही सद्चरित्र व सादगी पूर्वक रहने की सलाह देते थे ।चौथी और अंतिम बात मात्र गरीबों व गरीबी संबंधित बिल और एक्ट के पैरोकार बनने या इसका ढिंढोरा पीटने मात्र  से कोई गरीबों का मसीहा नहीं होता, मसीहा तो वह होता है जो गरीब के दर्द की अनुभूति व पीड़ा को स्वयं व स्वेच्छा से जीता हो, जैसे जीसस, मदर टेरेसा या महात्मा गांधी ।बड़ी हवेली में मखमल के आरामगद्दे पर लेटकर गरीब व गरीबी के प्रति आत्मीयता व हमदर्दी जताना कोई  सदाचार व मानवता  नहीं बल्कि यह  शुद्ध मिथ्याचार व घोर  पाखंड है ।

इन महत्वपूर्ण तथ्यों के मद्दनजर हर भारतीय को  सिरहाने बैठकर पैंताने की बात करने वालों के  मिथ्याचार को भलीभाँति समझने व तदनुरुप ही अपने विवेक द्वारा अपने  चुनाव के  सही  निर्णय लेने की आवश्यकता है ।

Friday, October 25, 2013

विरह गीत मैं अब लिख लूँगा


प्रेम वृष्टि तेरी वह अद्भुत ,
हूँ कृतार्थ आजीवन तेरा  ।
अब जो कठिन  वेदना देते  ,
वह भी मैं हँसकर सह लूँगा।१।

प्रेमसुधा की अर्पण तुमने,
पी जिसको मैं  धन्य हुआ ।
अब जो तुम विषपान कहे  तो
वह भी मैं हँसकर पी लूँगा ।२।

कितनी सहज रही यात्रा वह,
साथ कदम मिल दोनों चलते ।
जो तुम अपना साथ छुड़ाते,
कठिन राह पर  मैं चल लूँगा ।३।

प्रेमगीत मैं जो भी  लिखता,
भावों में तुम ही बसते थे ।
जाते छोड़ हृदय वीथी तुम,
विरह गीत मैं अब लिख लूँगा ।४।

मैं कहता था तुम सुनते थे,
बातें कई हृदय की मन की ।
मौन याद कर वे सब लमहे ,
छुपकर आँसू ढलका लूँगा ।५।

साथ तुम्हारा ही जीवन सुख,
पेंग दिए तुम मैं उड़ जाता ।
हाथ खींचते जो तुम अपना,
स्थिर हो दुःख मैं सह लूँगा ।६।

जो तुम हँसते बिखरें मोती ,
भर-भर मुट्ठी उन्हें बाँटता ।
भारी मन जो तुम होते हो,
स्मित कृपण बन मैं जी लूँगा ।७।

जो चाहा मैं निज को देखूँ
तुम मेरे दर्पण बन जाते ।
हटा दिया जो दर्पण तुमने ,
अपनी छवि खो मैं जी लूँगा।८।

Wednesday, October 23, 2013

सिर्फ अपनी पसंद की ही नहीं, बल्कि वह करें जो सही व आवश्यक है !


व्यक्ति के जीवन में नितांत आवश्यक है उसके द्वारा  यह  समझना कि उसके लिए क्या होना सही  है, बजाय कि उसके द्वारा  सिर्फ वही करना अथवा होना जो कि उसे भावनात्मक स्तर पर स्वयं को अच्छा व रुचिकर लगता है ।

प्रायः एक व्यक्ति को जीवन के  शुरुआती दौर में  इसकी ठीक ठीक समझ ही नहीं होती कि उसके लिये क्या होना सही है, हितकर  है , यदि किसी प्रकार से उसे इसका संकेत अथवा साक्षात्कार भी होता है, तो प्रायः उचित व सही चीजें स्वाद रहित व ऊपरी तौर पर कम आकर्षक होने के कारण या तो व्यक्ति द्वारा उपेक्षित  हो जाती है, अथवा उनका  व्यक्ति के रुचि व पसंद के मुताबिक न होने के कारण, वह उनको जानबूझकर नजरंदाज कर देता है ।

कहते हैं कि व्यक्ति को सही या गलत की सही परख व अनुभूति उसके अपने जीवन में स्वयं द्वारा की गयी गलतियों व  असफलताओं से सबक के रूप में ही  मिलती हैं, परंतु मसला यह है कि आजीवन बस गलतियां पर गलतियां करते रहने, व मात्र असफलताओं से जूझते रहने हेतु व्यक्ति की जीवन अवधि  व उसकी क्षमता बहुत थोड़ी व सीमित है ।अतः सहज व सफल जीवन जीने हेतु यह भी कतई आवश्यक है कि व्यक्ति लगातार न  सिर्फ निजी गलतियों व असफलताओं से सबक ले बल्कि साथ ही साथ दूसरों की गलतियों व असफलताओं से भी आवश्यक शिक्षा ग्रहण करता रहे व इन नसीहतों के मद्देनजर अपने जीवन पथ में जरूरी तब्दीली व सामंजस्य करते आगे बढ़े।

हालांकि दूसरों के अनुभवों व विचारों को यथास्वरूप अपनाने में व्यक्ति के भेड़चाल स्वभाव होने  व हर बात में बस दूसरों की ही नकल की  प्रवृत्ति का खतरा बनता है, साथ ही साथ इससे व्यक्ति की स्वतंत्र व मौलिक रूप से सोचने व करने की क्षमता प्रभावित होती है। अतः दूसरे के अनुभवों को स्वयं के जीवन में  बहुत सावधानी, विवेचनापूर्ण व संज्ञानपूर्वक ही अपनाना उचित होगा ।

एक प्रकार से कहें तो दूसरों के सही गलत,सफलता-असफलता  के अनुभव व उदाहरण से स्वयं के लिए  शिक्षा व नसीहत लेना किसी दुधारी तलवार की धार पर चलने से कतई कम नहीं, यह कार्य बहुत सावधानी, कुशलता व दक्षता के साथ ही करना होता   है अन्यथा यह व्यक्ति की मदद करने के विपरीत उसे हानिकारक  व उसके जीवन के प्रगति की राह   में गंभीर  बाधा बन सकता है  ।

इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में  व्यक्ति के  जीवन में एक सही मेंटर या मार्ग दर्शक का होना नितांत  मायने  व महत्वपूर्ण हो जाता है ।एक व्यक्ति के जीवन में मार्गदर्शक  विभिन्न रूप में हो सकते हैं जैसे मातापिता, अध्यापक, मित्र, बॉस, सहकर्मी, पत्नी, आध्यात्मिक गुरु या अन्य ।परंतु इसके साथ  यह तथ्य भी ध्यान में रखना उतना ही महत्वपूर्ण हो जाता  है कि हर मार्गदर्शक  के स्वयं के  अनुभव, विवेक, व दक्षता के रूप में उसकी निहित  सीमायें होती हैं, अतः व्यक्ति को  अपने मार्गदर्शक  के अनुभव,  सलाह व शिक्षा से एक सीमा तक ही सहायता मिल सकती है, अन्यथा व अंततः तो व्यक्ति को स्वयं के विवेक, आत्मनिर्णय का ही मुख्य अवलंबन होता है व इन्हीं  के ही आधार पर उसे अपने जीवन के फैसले,सही या गलत,  लेने होते हैं ।

इन तथ्यों  के अतिरिक्त, व्यक्ति के जीवन में अंतिम व निर्णायक बात है उसका  जीवन  परिस्थितियों व मिलने वाले नतीजों के प्रति स्वयं का दृष्टिकोण, व्यक्ति का  अपनी सफलताओं अथवा  असफलताओं, विशेषकर असफलताओं , के  प्रति पूरी जिम्मेदारी व जबाबदेही होना , यानी व्यक्ति के साथ जीवन में जो भी भला या बुरा हुआ, जीत मिली या हार, सफलता मिली अथवा असफलता, सबको सहजता से स्वीकार कर लेना व अपने हर कार्य व निर्णय के लिए पूरी तरह से जबाबदेही रखना ।इस दृष्टिकोण के साथ व्यक्ति  स्वाभाविक रूप से अपने  जीवन  में आत्मनिर्भर, स्वावलंबी व सामने आने वाली किन्हीं भी  परिस्थितियों हेतु निर्भीक व तैयार रहता है ।

कह सकते हैं व्यक्ति की सही करने की समझ उसके जीवन की सर्वोपरि सीख व उपलब्धि है ।सिर्फ अपनी  पसंद की ही नहीं, बल्कि वह करना जो सही और आवश्यक है ।