Wednesday, September 4, 2013

दीप बन जलते रहो तुम

है अँधेरा गहन कितना ,
दीप बन जलते रहो तुम ।
पतझड़ों के दौर हों पर ,
पुष्प बन खिलते रहो तुम ।१।  

                          
कौन कहता है गगन का
विस्तार होता है असीमित ?
हौसला ग़र पास हो तो ,
नाप सकते छोर हो तुम ।२।

क्या असंभव, कल्पना क्या ?
कहते किसे दिन में सितारे ?
जो भी सोचो, घटित हो वह,
सोचकर देखो स्वयं  तुम ।३।

कौन कहता आ नहीं
सकते धरा पर चाँद तारे ?
वे सिमटते मुट्ठियों में ,जो
नभ ऊँचाई  उठ खड़े तुम ।४।

विस्तार इतना ! लहर कितनी !
गंभीर है अति  गर्भ सागर ।
फिर भी जो डुबकी लगाओ,
रत्नमणि निधि पा सको तुम ।५।

श्वेत,श्यामल,देश,मजहब,
भेद कितने , नफरतें सौ  ।
जो समझते मनुजता को ,
बंधु जग को  मानते  तुम ।६।

करतल लकीरों में छिपे हैं,
आगत समय के संकेत हलके ।
पढ़ते हृदय निज चेतना जो
जानते  भवितव्यता तुम ।७।

5 comments:

  1. वाह! बहुत सुंदर प्रेरक गीत लिखा है आपने सर जी।

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  2. श्वेत,श्यामल,देश,मजहब,
    भेद कितने , नफरतें सौ ।
    जो समझते मनुजता को ,
    बंधु जग को मानते तुम .... प्रेरक .... सुंदर

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  3. उत्साह से सराबोर करता यह गीत, बहुत सुन्दर।

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  4. पतझड़ों के दौर हों पर ,
    पुष्प बन खिलते रहो तुम

    आपकी आशाएं फलीभूत हों ...मंगलकामनाएं !

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  5. सुन्दर और भावपूर्ण

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