Friday, November 9, 2012

उसका सब कुछ, उसका सारा।


एको त्वमसि द्वितीयो नास्ति ।

जग से मैं क्या माँग सकूँ हूँ,
मुझसे अधिक जगत बेचारा

जो मागूँ
तो उससे मागूँ, जो
देता सबको सहज सहारा ।

जग से मैं क्या मन-दुख बाँटूँ,
मुझसे अधिक जगत दुखियारा

जो
दुख बाँटू उससे बाँटू, जो
दुखतारण
, जो तारणहारा।

जग से क्या मैं लगन लगाऊँ,
जगत बेवफा,दिल का खारा।
लगन लगाऊँ उससे, जिससे
दिल लागे भवसागर तारा।

गीत जगत के क्या मैं गाऊँ
जगत अशांत क्षुब्ध चित्कारा।
गाऊँ गीत वही धुन साधूँ,
साँस बसा जो प्रेम-पियारा।

चित्र जगत के क्या मैं खींचू
धुँधला जगत विकृतमय चेहरा।
मन स्थापित एक मूर्ति वह,
जिसने सारा जगत उकेरा।

ध्यान जगत का क्या मैं साधूँ
बिखरा जगत,उजड़ता थारा।
मैं तो उसकी धुनी रमाऊँ
जो ब्रह्मरंध,जागृत सहसारा

जग को क्या मैं दे सकता हूँ,
जग की क्षुधा अतृप्त अहारा।
स्वयं समर्पित उसको होऊँ,
उसका सबकुछ, उसका सारा।

2 comments:

  1. सब कुछ उसका है, हम तो राही बन निकल जायेंगे, चुपचाप।

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  2. जग को क्या मैं दे सकता हूँ,
    जग की क्षुधा अतृप्त अहारा।
    स्वयं समर्पित उसको होऊँ,
    उसका सबकुछ, उसका सारा।

    बहुत ही उत्कृष्ट भावपूर्ण पंक्तियाँ,,,देवेन्द्र जी,,,,

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