Sunday, October 30, 2011

चटकीली धूप से मेरी नयी जान पहचान....




आज छुट्टी का दिन,
अपराह्न जो घर से बाहर निकला,
दिखी एक चटकीली,खिली,और ताजी सी धूप
अचानक जो हुई उससे मुलाकात,
तो मुझे वह बड़ी नवी नवेली सी लगी,
मेरे मुहल्ले की सड़क पर,
मेरे फ्लैट के उस पार वाले पार्क,
सड़क के किनारे पेड़ों के हरे पत्तों पर,
हँसती,खिलखिलाती,नृत्य करती वह,
गोया मैंने उसे पहली पहली बार,
अपने मुहल्ले में आते,खिलखिलाते देखा है।

मुझसे रहा न गया,पूछ ही बैठा,
कहाँ से आयीकैसे आयीकब आयी?
तो आसमान में चमकते रवि की ओर,
इशारा करते, खिलखिलाते बोली,
वहीं तो है मेरा घर,
सात-अश्वों के रथ पर सवार
अरे मैं रोज तो यहाँ आती हूँ हर प्रभात,
तुम्हारे घर के पीछे वाली झील,
तुम्हारे घर के पिछवाड़े की खिड़कियों,
बाहर खड़े कतारबद्ध वृक्षों की फुनगियों,
तुम्हारे लॉन में फैली घास पर फैली ओस की बूँदों पर,
मैं ही तो चमकती हूँ हर सुबह हीरे की तरह।
तुम्हारे बेडरूम की खिड़की के शीशे के रास्ते,
मैं तो तुम्हारे कमरे में रोज ही सुबह-सुबह आ धमकती हूँ,
इक बिन बुलाये अतिथि की तरह।

फिर उलाहना देते हुये वह उदास सी बोली-
मगर तुम्हे फुरसत हो तब न !
अपने आलस्य,उन्माद, मन की उधेड़बुन से,
अपने लैपटॉप,मोबाइल और टेलीविजन से,
कि मेरे इस चमकते,खिलखिलाते,उजाला बिखरते,
नूर भरे चेहरे को प्रेम से इक बार निहार लेते।
और इस तरह शिकायत करती, झम-झम कदम पटकती,
मुँह फुलाये, बुदबुदाते, बादलों की शाल का आवरण डाल,
मुझपर नाराजगी दिखाते वह दूर भागती ओझल हो गयी।
मैं अचकचाया, उदासमना, एक अपराधबोध लिये,
अपनी हतासा लिये, चुपचाप उसे जाते हुये देखता रह गया ।

बस उसकी नसीहत भरी बाते, मेरे मन में गूँजती रह गयी हैं,
और इस उदासमन के कोने में एक उम्मीद सी वर्तमान हैं,
कि कल सुबह मुझे जगाने मेरे बेडरूम में
रोज की तरह  जब उसकी दस्तक होगी,
तो मैं उसके चमकते चेहरे को जी भर कर निहारूँगा,
उसकी बाँहों को हौले से पकड़ ,
दूर तक जाऊँगा उसके साथ-साथ टहलते,
घर की झील के उस पार तक।
दूर तक उसकी अगवानी में खड़े मुस्कराते वृक्षों के साथ,
मैं भी उसके फैले आँचल की भीनी-भीनी सुगंध ,
अपने मन-हृदय में आत्मसात कर,
प्रेम-धन्य हो जाऊँगा।

2 comments:

  1. बड़ा प्रभावित हुआ पढ़कर, बाहर निकला तो धूप जा चुकी थी।

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  2. वाह! देवेन्द्र भाई आखिर आपने धूप को पहचान ही लिया है.
    आपकी शानदार प्रस्तुति में भी धूप की खिलखिलाहट विराजमान हो गई है.झिलमिला और खिलखिला रही है अंतर्मन को.

    सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.

    कुछ खिलखिलाहट मेरे ब्लॉग पर भी बिखेर देते तो
    मेरा ब्लॉग भी खिल उठता जी.

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